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ग़ज़ल
सँवारे जा रहे हैं हम उलझती जाती हैं ज़ुल्फ़ें
तुम अपने ज़िम्मा लो अब ये बखेड़ा हम नहीं लेंगे
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
ज़मीं को मिल के सँवारें मिसाल-ए-रू-ए-निगार
रुख़-ए-निगार से रौशन चराग़-ए-बाम करें
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ऐ जाँ है तेरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ का हुस्न और
हूरों के बाल हैं जो सँवारे हुए तो क्या
अहमद हुसैन माइल
ग़ज़ल
कश्ती सवार-ए-उम्र हूँ बहर-ए-फ़ना में 'ज़ौक़'
जिस दम बहा के ले गया तूफ़ान बह गया
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
जिएँगे जो वो देखेंगे बहारें ज़ुल्फ़-ए-जानाँ की
सँवारे जाएँगे गेसु-ए-दौरान हम नहीं होंगे
अब्दुल मजीद सालिक
ग़ज़ल
तबस्सुमों ने निखारा है कुछ तो साक़ी के
कुछ अहल-ए-ग़म के सँवारे हुए हैं मय-ख़ाने