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ग़ज़ल
जिस के हाथों में हुआ था संग-रेज़ों का शिकार
आज वो भी हो गया अपने गुनाहों का शिकार
बदरुल हसन बदर
ग़ज़ल
मुझे इन संग-रेज़ों को गुहर करना भी आता है
शब-ए-तारीक को नूर-ए-सहर करना भी आता है
मोहम्मद इस्माईल शादाँ
ग़ज़ल
इजाज़त से तुम्हारी गुफ़्तुगू की संग-रेज़ो ने
बराबर सुनने वालों ने सुनी तक़रीर मिट्टी की