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ग़ज़ल
बहार की सवारियों के हम-रिकाब क्यूँ रहे
ख़िज़ाँ का बर्ग-ओ-बार पर इताब देखता हूँ मैं
सुहैल अहमद ज़ैदी
ग़ज़ल
मेरा दुख ये है मैं अपने साथियों जैसा नहीं
मैं बहादुर हूँ मगर हारे हुए लश्कर में हूँ
रियाज़ मजीद
ग़ज़ल
उसे देखा तो चेहरा ढाँप लोगे अपने हाथों से
हम अपने साथियों में 'राम' ऐसा फ़र्द रखते हैं
राम रियाज़
ग़ज़ल
क्या मिला मिटा कर हम तीरगी के मारों को
अब सँवारिए अपनी ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म तन्हा
मुबारक मुंगेरी
ग़ज़ल
आख़िर में बस निशाँ हैं 'सहर' कुछ सवालिया
फिर इस के बअ'द दास्ताँ का इख़्तिताम है