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ग़ज़ल
मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब
बज़्म-ए-साक़ी में अदब आदाब मत देखा करो
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मय-कदा सुनसान ख़ुम उल्टे पड़े हैं जाम चूर
सर-निगूँ बैठा है साक़ी जो तिरी महफ़िल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ये है मय-कदा यहाँ रिंद हैं यहाँ सब का साक़ी इमाम है
ये हरम नहीं है ऐ शैख़ जी यहाँ पारसाई हराम है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
अभी रात कुछ है बाक़ी न उठा नक़ाब साक़ी
तिरा रिंद गिरते गिरते कहीं फिर सँभल न जाए
अनवर मिर्ज़ापुरी
ग़ज़ल
मोहतसिब की ख़ैर ऊँचा है उसी के फ़ैज़ से
रिंद का साक़ी का मय का ख़ुम का पैमाने का नाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
ये दिल की तिश्नगी है या नज़र की प्यास है साक़ी
हर इक बोतल जो ख़ाली है भरी मालूम होती है
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
चश्म-ए-साक़ी से पियो या लब-ए-साग़र से पियो
बे-ख़ुदी आठों पहर हो ये ज़रूरी तो नहीं