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ग़ज़ल
अहल-ए-इरफ़ाँ के लिए होता है ये सामान-ए-वज्द
झूमते रहते हैं ले कर तेरे दीवाने का नाम
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
ग़ज़ल
मैं अक्सर सोचता हूँ 'वज्द' उन की मेहरबानी से
ये कुछ गुज़री है अपनों पर तो बेगानों पे क्या गुज़री
सिकंदर अली वज्द
ग़ज़ल
रहेगी 'वज्द' तिरी काएनात-ए-दिल बरहम
कहा था किस ने कि उस हुस्न-ए-बे-मिसाल को देख
सिकंदर अली वज्द
ग़ज़ल
किसी की जुस्तुजू में 'वज्द' उस मंज़िल पे पहुँचा हूँ
जहाँ मंज़िल भी गर्द-ए-कारवाँ मालूम होती है
सिकंदर अली वज्द
ग़ज़ल
शब की ख़ामोशी में है तेरा तसव्वुर तेरी याद
हाए क्या सामान-ए-तस्कीन-ए-दिल-ए-रंजूर है