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ग़ज़ल
दिल में अब रहम नहीं मेहर-ओ-मोहब्बत भी नहीं
वो भी इंसाँ था मगर साहब-ए-ज़र होने तक
सय्यद तम्जीद हैदर तम्जीद
ग़ज़ल
क़द्र-ओ-क़ीमत नहीं अब ज़ात-ओ-शराफ़त की यहाँ
उस की अज़्मत है कि जो साहब-ए-ज़र होता है
अज़ीज़ मुरादाबादी
ग़ज़ल
ख़रीद के ला न पाओगे तुम मिलेंगे नहीं दूकाँ पे उसूल
थे साहब-ए-ज़र हज़ार मगर वफ़ा के ग़ुलाम हो न सके