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ग़ज़ल
'सुरूर'-ए-सादा को यूँ तो लहू रोना ही आता है
मगर इस सादगी में भी बड़े पहलू निकलते हैं
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
जहाँ हरकत नहीं होती वहाँ बरकत नहीं होती
'सुरूर' अब वादी-ए-गुल में क़याम अच्छा नहीं लगता
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
आइने जितने भी देखे वो मुकद्दर थे 'सुरूर'
जौहर-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा फिर भी हमारा न गया
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
जो हर नज़र में ताज़ा करें मय-कदे हज़ार
सच है 'सुरूर'-ए-रफ़्ता को वो याद क्या करें
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
ये रंग-ओ-बू के तिलिस्मात किस लिए हैं 'सुरूर'
बहार क्या है जुनूँ की जो परवरिश ही नहीं
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
ग़ुरूर-ए-इश्क़ ग़ुरूर-ए-वफ़ा ग़ुरूर-ए-नज़र
'सुरूर' तेरे गुनाहों का कुछ शुमार भी है
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
उस की क़िस्मत में भी थोड़ा सा उजाला था 'सुरूर'
जो दिया बुझता हुआ वक़्त-ए-सहर रौशन था
क़मर सुरूर
ग़ज़ल
ज़िंदगी तिश्ना भी है बे-रंग भी लेकिन 'सुरूर'
जब तलक चेहरा फ़रोग़-ए-मय से ताबिंदा न हो
सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल
ब-हज़ार दानिश-ओ-आगही मिरी मस्लहत है अभी यही
मैं 'सुरूर'-ए-रहरव-ए-शब सही मिरी दस्तरस में सहर भी है
सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल
ज़िंदगी नज़्र-ए-हरम तो हो चुकी लेकिन 'सुरूर'
हर अक़ीदत क़ाज़ा-ए-आलम सनम-ख़ाने के साथ