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ग़ज़ल
औरों जैसे हो कर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधा-पन है कुछ अपनी अय्यारी है
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
टेढ़े न हो हम से रखो इख़्लास तो सीधा
तुम प्यार से रुकते हो तो लो प्यार भी छोड़ा
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
तिरा सीधा सा वो बयान है तिरी टूटी-फूटी ज़बान है
तिरे पास हैं यही ठेकरे तू महल इन्हीं से बनाए जा