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ग़ज़ल
रहज़नी है सर-ए-बाज़ार तुम्हें क्या मालूम
तुम तो हो क़ाफ़िला-सालार तुम्हें क्या मालूम
अज़मत भोपाली
ग़ज़ल
अपने अशआर को रुस्वा सर-ए-बाज़ार करूँ
कैसे मुमकिन है कि मैं मिदहत-ए-दरबार करूँ