आपकी खोज से संबंधित
परिणाम "सुलग"
ग़ज़ल के संबंधित परिणाम "सुलग"
ग़ज़ल
ज़िया जालंधरी
ग़ज़ल
शकील आज़मी
ग़ज़ल
मिरी प्यास बढ़ रही है मिरा दिल सुलग रहा है
जो नहीं है जाम साक़ी तो निगाह से पिला दे
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
ज़मीन आँखों को मल रही थी हवा का कोई निशाँ नहीं था
तमाम सम्तें सुलग रही थीं मगर कहीं भी धुआँ नहीं था