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ग़ज़ल
जौन एलिया
ग़ज़ल
यही काँटे तो कुछ ख़ुद्दार हैं सेहन-ए-गुलिस्ताँ में
कि शबनम के लिए दामन तो फैलाया नहीं करते
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
जब किसी फूल पे ग़श होती हुई बुलबुल को
सेहन-ए-गुलज़ार में देखोगे तो याद आऊँगा
राजेन्द्र नाथ रहबर
ग़ज़ल
खड़ा हूँ यूँ किसी ख़ाली क़िले के सेहन-ए-वीराँ में
कि जैसे मैं ज़मीनों में दफ़ीने देख लेता हूँ