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ग़ज़ल
मिरी सरिश्त-ए-'सुख़न' में हैं कुछ नए उस्लूब
नई ग़ज़ल ने मुझे भी ख़ुश-आमदीद कहा
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
वो जो हैं लज़्ज़त-ए-तफ़्हीम-ए-सुख़न से वाक़िफ़
शे'र सुनते हैं वही लोग मुकर्रर मुझ से
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
नहीं ये अब्र-ओ-बाराँ 'सोज़' के अहवाल को सुन कर
फ़लक की भी मोहब्बत से ये अब छाती भर आई है
मीर सोज़
ग़ज़ल
मीर सोज़
ग़ज़ल
'सोज़' का दिल ख़ुश तो हो जाता है वादों से मियाँ
पर ग़ज़ब ये है कि वक़्त ही पर मुकर जाते हो तुम
मीर सोज़
ग़ज़ल
मय-ए-रंगीं सुरूद-ए-शोख़ रक़्स-ए-दिल-रुबा शब को
सहर को 'सोज़' फ़ुर्क़त के निशाँ महफ़िल में रहते हैं