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ग़ज़ल
चौधरियों के हवस-कदे में इक मुटियार अकेली है
कितनी बड़ी है लेकिन फिर भी कैसी तंग हवेली है
आसिम वास्ती
ग़ज़ल
अभी हवस को मयस्सर नहीं दिलों का गुदाज़
अभी ये लोग मक़ाम-ए-नज़र से गुज़रे हैं