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ग़ज़ल
कोई सदा भी हम-आहंग नहीं होती अब साज़ों से
वर्ना दीपक जल उठते हैं दर्द भरी आवाज़ों से
रऊफ़ अंजुम
ग़ज़ल
तिरी हस्ती ही क्या है गूँज है ये साज़-ए-फ़ितरत की
हम-आहंग-ए-सदा-ए-साज़ हो कर नग़्मा-ख़्वाँ हो जा
धर्मेंद्र नाथ
ग़ज़ल
यहाँ आपस में हम-आहंग होना है बहुत मुश्किल
कभी मुफ़्लिस भी देखा है कभी ज़रदार देखा है
अख़तर इमाम अनजुम
ग़ज़ल
मेरे जज़्बात हम-आहंग-ए-तक़द्दुस ही रहे
या'नी किरदार का दामन कभी मैला न हुआ