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ग़ज़ल
बिखराते हो सोना हर्फ़ों का तुम चाँदी जैसे काग़ज़ पर
फिर इन में अपने ज़ख़्मों का मत ज़हर मिलाओ इंशा-जी
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
मिरे हर्फ़ों के ये मोती मिरे हाथों बिखर जाते
ग़ुबार-ए-बे-यक़ीनी में अगर रस्ता बदल लेते
फ़रह इक़बाल
ग़ज़ल
ये सिर्फ़ हर्फ़ों की ताब-कारी का ज़हर कब है
ख़ुदा के बंदो ये हम ग़रीबों की शाइ'री है
जहाँज़ेब साहिर
ग़ज़ल
याद आता है वो हर्फ़ों का उठाना अब तक
जीम के पेट में एक नुक्ता है और ख़ाली हे
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
हूँ असीर-ए-ज़ुल्फ़ ज़ाहिर है ख़त-ए-तक़्दीर से
दाएरे हर्फ़ों के मिल कर बन गए हैं दाम-ए-इश्क़
अबुल कलाम आज़ाद
ग़ज़ल
ना-तवानी से नहीं है मुझे मुमकिन हरकत
मैं हूँ हर्फ़ों की तरह मेरा है बिस्तर काग़ज़