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ग़ज़ल
क़फ़स क्या हल्क़ा-हा-ए-दाम क्या रंज-ए-असीरी क्या
चमन पर मिट गया जो हर तरह आज़ाद होता है
असग़र गोंडवी
ग़ज़ल
शब हमा शब खेलते थे हल्क़ा-हा-ए-ज़ुल्फ़ से
दीदा-ए-ग़म्माज़ को हम दास्ताँ रखते थे हम
मुज़फ़्फ़र शिकोह
ग़ज़ल
इक बरहमन ने कहा है मेरे हाल-ए-ज़ार पर
हो के मोमिन मर रहा है क्यूँ बुत-ए-पिंदार पर