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ग़ज़ल
हस्ती ही अपनी क्या है ज़माने के सामने
इक ख़्वाब हैं जहाँ में बिखर जाएँ हम तो क्या
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता वो मिरी हस्ती का सामाँ हो गए
पहले जाँ फिर जान-ए-जाँ फिर जान-ए-जानाँ हो गए
तस्लीम फ़ाज़ली
ग़ज़ल
अदम की जो हक़ीक़त है वो पूछो अहल-ए-हस्ती से
मुसाफ़िर को तो मंज़िल का पता मंज़िल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है