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ग़ज़ल
ग़ज़ल-सराई-ए-'मंशा' पे यूँ हुआ महसूस
कि जैसे रूह के अंदर समो गए अल्फ़ाज़
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
दौलत-ए-दीदार हस्ब-ए-मुद्दआ हासिल हुई
मिल गई जिस शख़्स को तक़दीर से इक्सीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
क़लम उठे तो रहे अज़्मत-ए-क़लम का ख़याल
ऐ 'मंशा' यूँही सदा हिफ़्ज़-ए-आबरू कीजे
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
नहीं मा'लूम यूँही ख़ुद को कहाँ तक 'मंशा'
क़ैद-ए-अख़लाक़ से आज़ाद करेगी दुनिया
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
कौनैन के हर राज़ को महरम जिसे कहिए
'मंशा' को वही फ़िक्र-ए-रसा तुझ से मिली है
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
हक़ तो ये है कि ख़लाओं के सफ़र ऐ 'मंशा'
अज़मत-ए-रुत्बा-ए-इंसाँ की ख़बर देते हैं
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
ये फ़र्त-ए-गिर्या-ओ-ज़ारी का है असर 'मंशा'
ज़मीं मकानों की गीली है नम हैं दीवारें
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
जान-ओ-दिल हम भी करें नज़्र-ए-मोहब्बत 'मंशा'
इतनी मेहनत का सिला कुछ हमें मा'लूम तो हो
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
सच तो है यही 'मंशा' ज़िंदगी की राहों में
तीरगी का ख़तरा है शम-ए-दिल जलाने तक
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
ये पेश-रफ़्त की है शर्त-ए-अव्वलीं 'मंशा'
कि चलने वाला अटल अज़्म-ए-पुर-यक़ीं से चले
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
शाइ'री का ये करम कम तो नहीं है 'मंशा'
लोग तुझ को तिरे अशआ'र से पहचानते हैं