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ग़ज़ल
ग़म-ए-दौराँ की रही या ग़म-ए-जानाँ की रही
अल-ग़रज़ छेड़ रही मंज़िल-ए-नाकाम के साथ
मंज़िल लोहाठेरी
ग़ज़ल
समझ ये हाल है तेरा ये मुस्तक़बिल भी तेरा है
क़दम आगे बड़ा 'हासिल' तू क्यों माज़ी पे रोता है
सुजीत सहगल हासिल
ग़ज़ल
हासिल-ए-मंज़िल नहीं गर्द-ए-सफ़र के मा-सिवा
हर तमन्ना ख़ाक-ए-पा है या तमन्ना कीजिए