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ग़ज़ल
हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
वो अपने लुत्फ़ से मिट्टी में जान डालता है
ये चाक-ए-हुस्न-ए-जहाँ कूज़ा-गर की रौनक़ है
अशहद करीम उल्फ़त
ग़ज़ल
नरेश एम. ए
ग़ज़ल
जल्वा-ए-हुस्न-ए-जहाँ-ताब के परतव की क़सम
फिर हक़ीक़त से बदल तूर के अफ़्साने को