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ग़ज़ल
न देखे होंगे रिंदों से भी तू ने पाक ऐ ज़ाहिद
कि ये बे-दाग़ मय-ख़ाने की आब-ओ-गिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
जो चश्म कि बे-नम हो वो हो कोर तो बेहतर
जो दिल कि हो बे-दाग़ वो जल जाए तो अच्छा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
मीम भी यूँ ही है और नून के अंदर नुक़्ता
मुफ़लिसा बेग है ये वाव भी और छोटी हे
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
ग़म-ए-नाकामी-ए-कोशिश से हालत बिगड़ी जाती है
कलेजे में यहाँ बे-आग छाले पड़ते जाते हैं
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
इक समाँ खुलता हुआ सा इक फ़ज़ा बे-दाग़ सी
अब यही मंज़र मिरे हम-राह चलता जाएगा
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
'कैफ़' कहाँ तक तुम ख़ुद को बे-दाग़ रख्खोगे
अब तो सारी दुनिया के मुँह पर स्याही है
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
हज़ार वा'दे किए हैं तुम ने कभी किसी को वफ़ा न करना
चलो उसी पर जो ग़ैर कह दें कहीं हमारा कहा न करना
क़ुर्बान अली सालिक बेग
ग़ज़ल
मिरे मालिक सर-ए-शाख़-ए-शजर इक फूल की मानिंद
मिरी बे-दाग़ पेशानी पे सज्दा रख दिया जाए
रज़ा मौरान्वी
ग़ज़ल
किस बोसा-ए-बे-साख़्ता का हूँ मैं तक़द्दुस
किस सीना-ए-बेदाग़ का अरमाँ हूँ बताओ