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ग़ज़ल
अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
गरचे हैं मूनिस-ओ-ग़म-ख़्वार तग-ओ-दौ में सही
पर तिरी तब्अ को कब राह पे ला सकते हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ये मैदान-ए-तग-ओ-दौ है मशक़्क़त ही मशक़्क़त है
वही जीतेगा जो सौ बार हारा हम न कहते थे