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ग़ज़ल
ये जो भीड़ है बे-हालों की दौड़ है चंद निवालों की
नान-ओ-नमक का बोझ लिए जल्दी से घर जाने का ग़म
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
इक मुसलसल दौड़ में हैं मंज़िलें और फ़ासले
पेड़ तो अपनी जगह हैं रास्ता अपनी जगह
इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
वो खेल वो साथी वो झूले वो दौड़ के कहना आ छू ले
हम आज तलक भी न भूले वो ख़्वाब सुहाना बचपन का