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ग़ज़ल
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़'
है तिरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़-ए-रक़ाबत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है
जौन एलिया
ग़ज़ल
तिरी कज-अदाई से हार के शब-ए-इंतिज़ार चली गई
मिरे ज़ब्त-ए-हाल से रूठ कर मिरे ग़म-गुसार चले गए