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ग़ज़ल
ढले हैं क़ालिब-ए-ईज़ा में इस तरह हम लोग
अब अपने ख़ुद के ही ज़ख़्मों से हज़ उठाते हैं
शम्स ख़ालिद
ग़ज़ल
साक़िब अमरोहवी
ग़ज़ल
उस से टकरा के बिखरने में जो लज़्ज़त है 'सलीम'
इस क़दर हज़्ज़-ए-शिकस्त और अज़ाबों में नहीं
सलीम शहज़ाद
ग़ज़ल
ख़ूब रिंदों ने उड़ाए हैं मज़े दुनिया के
हीज़ को बक्र है मर्दों की वो मदख़ूला है