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ग़ज़ल
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबाँ होना
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
गिराँ-बहा है तो हिफ़्ज़-ए-ख़ुदी से है वर्ना
गुहर में आब-ए-गुहर के सिवा कुछ और नहीं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ग़ैरों पे लुत्फ़ हम से अलग हैफ़ है अगर
ये बे-हिजाबियाँ भी हों उज़्र-ए-हया के ब'अद
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
'मीर' मिले थे 'मीरा-जी' से बातों से हम जान गए
फ़ैज़ का चश्मा जारी है हिफ़्ज़ उन का भी दीवान करें
मीराजी
ग़ज़ल
हिफ़्ज़ थीं मुझ को भी चेहरों की किताबें क्या क्या
दिल शिकस्ता था मगर तेज़ नज़र ऐसा था
राहत इंदौरी
ग़ज़ल
दस्त-ए-तलब कुछ और बढ़ाते हफ़्त-इक़्लीम भी मिल जाते
हम ने तो कुछ टूटे-फूटे जुमलों ही पे क़नाअत की
ज़ेहरा निगाह
ग़ज़ल
ले चले दो फूल भी इस बाग़-ए-आलम से न हम
वक़्त-ए-रहलत हैफ़ है ख़ाली ही दामाँ रह गया
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
छोड़ कर जाना तन-ए-मजरूह-ए-आशिक़ हैफ़ है
दिल तलब करता है ज़ख़्म और माँगे हैं आ'ज़ा नमक
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हैफ़! कहते हैं हुआ गुलज़ार ताराज-ए-ख़िज़ाँ
आश्ना अपना भी वाँ इक सब्ज़ा-ए-बेगाना था