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ग़ज़ल
ख़त-ए-नौ-ख़ेज़ नील-ए-चश्म ज़ख़्म-ए-साफ़ी-ए-आरिज़
लिया आईना ने हिर्ज़-ए-पर-ए-तूती ब-चंग आख़िर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
इक रिश्ता-ए-वफ़ा था सो किस ना-शनास से
इक दर्द हिर्ज़-ए-जाँ था सो किस के सिले में था
मुस्तफ़ा ज़ैदी
ग़ज़ल
इतनी नज़दीकी कि जैसे छू रहा हूँ ख़ुद को मैं
हिर्ज़-ए-जाँ है वो जिसे वहम-ओ-गुमाँ समझा था मैं
पीरज़ादा क़ासीम
ग़ज़ल
हिर्ज़-ए-जाँ ठहरे जो सहरा में ठिकाना मिल जाए
बस्तियों में तो है आशुफ़्ता-सरी का मौसम
लईक़ आजिज़
ग़ज़ल
हिर्ज़-ए-जाँ समझते हैं हम वतन की मिट्टी को
अपने घर के ख़ारों को हम गुलाब लिक्खेंगे
बख़्श लाइलपूरी
ग़ज़ल
जो सारे हम-सफ़र इक बार हिर्ज़-ए-जाँ कर लें
तो जिस ज़मीं पे क़दम रक्खें आसमाँ कर लें