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ग़ज़ल
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
फ़लक पर जाए 'ईसा है गया ज़ेर-ए-ज़मीं क़ारूँ
ज़मीन-ओ-आसमाँ का फ़र्क़ पाया हक़्क़-ओ-बातिल में
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
ज़माने पर किसे मालूम कैसा बार गुज़रा है
मिरा हक़्क़-ओ-सदाक़त पर मदार-ए-गुफ़्तुगू रखना
आतिश बहावलपुरी
ग़ज़ल
अफ़राद पे भी अक़्वाम पे भी ये मुश्किल आती रहती है
हर दौर में हक़-ओ-बातिल की क़ुव्वत टकराती रहती है
सईद अहमद अख़्तर
ग़ज़ल
ख़त-ए-साग़र में राज़-ए-हक़-ओ-बातिल देखने वाले
अभी कुछ लोग हैं साक़ी की महफ़िल देखने वाले
असग़र गोंडवी
ग़ज़ल
मिरा तर्ज़-ए-सुलूक इस राह के रह-रौ न समझेंगे
मगर जो राहबर राह-ए-हक़-ओ-बातिल समझते हैं
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
फुग़ान-ए-हक़्क़-ओ-सदाक़त का मरहला है अजीब
दबे तो बंद-ओ-सलासिल उठे तो दार-ओ-सलीब
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
का'बे से हो या देर से मंज़िल पे पहुँच जाऊँ
इक धुन है तमीज़-ए-हक़-ओ-बातिल नहीं रखता
यगाना चंगेज़ी
ग़ज़ल
बहकना उस को कहते हैं तो साक़ी और दे मुझ को
हक़-ओ-बातिल जो समझा दे भले हो क्यों न मय-ख़ाना
आतिर अली सय्यद
ग़ज़ल
मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम
ग़ज़ल
उसे क्यूँकर न कहते हम कि यकता है ख़ुदाई में
शनासा थे तमीज़-ए-हक़्क़-ओ-बातिल हम भी रखते थे