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ग़ज़ल
चराग़-ए-हक़ हैं तो ख़ामोश क्यूँ हैं वो 'रज़्मी'
बिना जले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं
मुज़फ़्फ़र रज़्मी
ग़ज़ल
पलकों पे उस की जले बुझेंगे जुगनू जब मिरी यादों के
कमरे में होंगी बरसातें घर जंगल हो जाएगा
ताहिर फ़राज़
ग़ज़ल
जले जाते हैं बढ़ बढ़ कर मिटे जाते हैं गिर गिर कर
हुज़ूर-ए-शम'अ परवानों की नादानी नहीं जाती