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ग़ज़ल
टूट के फिर से जुड़ गया ख़्वाब का ज़र्द सिलसिला
मैं ने तिरे फ़िराक़ को नींद में ही बसर किया
समीना राजा
ग़ज़ल
जो लम्हे टूट चुके उन को जोड़ते क्यूँ हो
ये जुड़ गए तो उन्हें फिर से तोड़ते क्यूँ हो