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ग़ज़ल
कूच अपना उस शहर तरफ़ है नामी हम जिस शहर के हैं
कपड़े फाड़ें ख़ाक-ब-सर हों और ब-इज़्ज़-ओ-जाह चलें
जौन एलिया
ग़ज़ल
मिरे शाह-ए-सुलैमाँ-जाह से निस्बत नहीं 'ग़ालिब'
फ़रीदून ओ जम ओ के ख़ुसरव ओ दाराब ओ बहमन को
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हम जाह-ओ-हशम याँ का क्या कहिए कि क्या जाना
ख़ातिम को सुलैमाँ की अंगुश्तर-ए-पा जाना
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
न की सामान-ए-ऐश-ओ-जाह ने तदबीर वहशत की
हुआ जाम-ए-ज़मुर्रद भी मुझे दाग़-ए-पलंग आख़िर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बड़ी चीज़ दौलत-ओ-जाह है बड़ी वुसअ'तें हैं नसीब उसे
मगर अहल-ए-दौलत-ओ-जाह में कहीं आदमी का गुज़र भी है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ख़ुदा ने इल्म बख़्शा है अदब अहबाब करते हैं
यही दौलत है मेरी और यही जाह-ओ-हशम मेरा
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
अगर क़ब्रें नज़र आतीं न दारा-ओ-सिकन्दर की
मुझे भी इश्तियाक़-ए-दौलत-ओ-जाह-ओ-हशम होता