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ग़ज़ल
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
फ़ितरत-ए-हुस्न तो मा'लूम है तुझ को हमदम
चारा ही क्या है ब-जुज़ सब्र सो होता भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
आज बहुत दिन बा'द मैं अपने कमरे तक आ निकला था
जूँ ही दरवाज़ा खोला है उस की ख़ुश्बू आई है
जौन एलिया
ग़ज़ल
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़
मैं ये समझूँगा कि शमएँ दो फ़रोज़ाँ हो गईं