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ग़ज़ल
लाले की शाख़ हरगिज़ लहके न फिर चमन में
गर सर पे सुर्ख़ चीरा वो नौनिहाल बाँधे
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
सुनते हैं कि चमन महके बुलबुल चहके बन लहके हैं
अपने नशेमन तक जो न पहुँची ऐसी बहार बहार कहाँ