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ग़ज़ल
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
मू-ए-आतिश दीदा है हल्क़ा मिरी ज़ंजीर का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वूहीं अपनी भी है बारीक-तर-अज़-मू गर्दन
तेग़ के साथ यहाँ ज़िक्र-ए-कमर होता है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
हर-बुन-ए-मू से दम-ए-ज़िक्र न टपके ख़ूँ नाब
हमज़ा का क़िस्सा हुआ इश्क़ का चर्चा न हुआ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अमानत की तरह रक्खा ज़मीं ने रोज़-ए-महशर तक
न इक मू कम हुआ अपना न इक तार-ए-कफ़न बिगड़ा
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
बस-कि हैं बद-मस्त-ए-ब-शिकन ब-शिकन-ए-मय-ख़ाना हम
मू-ए-शीशा को समझते हैं ख़त-ए-पैमाना हम
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तकलीफ़-ए-तकल्लुफ़ से किया इश्क़ ने आज़ाद
मू-ए-सर-ए-शोरीदा हैं क़ाक़ुम से ज़ियादा