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ग़ज़ल
अक्स-ए-रुख़्सार ने किस के है तुझे चमकाया
ताब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
मू-ए-आतिश दीदा है हल्क़ा मिरी ज़ंजीर का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
सब रक़ीबों से हों ना-ख़ुश पर ज़नान-ए-मिस्र से
है ज़ुलेख़ा ख़ुश कि महव-ए-माह-ए-कनआँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ग़ज़ब है 'दाग़' के दिल से तुम्हारा दिल नहीं मिलता
तुम्हारा चाँद सा चेहरा मह-ए-कामिल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जो हम पे शब-ए-हिज्र में उस माह-ए-लक़ा के
गुज़रे हैं 'ज़फ़र' रंज-ओ-अलम कह नहीं सकते
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
ये फ़लक ये माह-ओ-अंजुम ये ज़मीन ये ज़माना
तिरे हुस्न की हिकायत मिरे इश्क़ का फ़साना