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ग़ज़ल
जा के सुनूँ आसार-ए-चमन में साएँ साएँ शाख़ों की
ख़ाली महल के बुर्जों से दीदार-ए-बर्क़-ओ-बाद करूँ
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
बैठ के साहिल पर हम दोनों सपने बोया करते थे
रेत के सीने पर इक बच्चा महल उगाया करता था
सय्यद नसीर शाह
ग़ज़ल
ख़ुश थी मैं छोटे से घर में भी तिरे प्यार के साथ
मैं ने कब तुझ से किसी महल की चाहत की है