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ग़ज़ल
मूसा की है क़सम तुझे और कोह-ए-तूर की
नूर-ओ-फ़रोग़-ए-जल्वा-ए-लमआ'न की क़सम
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
रौशन-ज़मीर हैं ये तिरे ख़ाकसार-ए-इश्क़
रखते हैं फ़ैज़-ए-इश्क़ से नूर-ओ-सफ़ा-ए-क़ल्ब
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
आलम दिखा रहे हैं अजब नूर-ओ-नार का
जल्वों को हुस्न-ओ-इश्क़ के यक-जाँ किए हुए
सलाहुद्दीन फ़ाइक़ बुरहानपुरी
ग़ज़ल
ज़िंदगी के दामन में रंग-ओ-नूर-ओ-निकहत क्या
ख़्वाब ही तो देखा है ख़्वाब की हक़ीक़त क्या
पीरज़ादा क़ासीम
ग़ज़ल
कोई तो है जो इस हैरत-सरा-ए-नूर-ओ-ज़ुल्मत में
सितारे को ज़िया आईने को तिमसाल देता है
फ़रासत रिज़वी
ग़ज़ल
फ़लक से नूर-ओ-तमाज़त तो लेते हैं लेकिन
शजर जड़ों को फ़क़त ख़ाक ही से बाँधते हैं