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ग़ज़ल
छुपा कर 'इश्क़ की ख़ुशबू को तो रखा नहीं जाता
नज़र उस को भी पढ़ लेती है जो लिक्खा नहीं जाता
फ़ारूक़ ज़मन
ग़ज़ल
मताअ'-ए-ज़र्फ़ होती तो क़द-आवर हो गए होते
तो फिर तुम भी मिरे क़द के बराबर हो गए होते
फ़ारूक़ ज़मन
ग़ज़ल
फ़िर्क़ा-ए-याजूज-ओ-माजूज आ बहम लड़ते हैं जब
वहाँ करे है आशिक़ों की भंग का सोंटा मदद