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ग़ज़ल
कोई ऐसा अहल-ए-दिल हो कि फ़साना-ए-मोहब्बत
मैं उसे सुना के रोऊँ वो मुझे सुना के रोए
सैफ़ुद्दीन सैफ़
ग़ज़ल
अलम से याँ तलक रोईं कि आख़िर हो गईं रुस्वा
डुबाया हाए आँखों ने मिज़ा का ख़ानदाँ अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
कहाँ तक रोऊँ उस के खे़मे के पीछे क़यामत है
मिरी क़िस्मत में या-रब क्या न थी दीवार पत्थर की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मिल कर रोएँ फ़रियाद करें उन बीते दिनों को याद करें
ऐ काश कहीं मिल जाए कोई जो मीत पुराना बचपन का
आनंद बख़्शी
ग़ज़ल
जिस्म तो मिट्टी में मिलता है यहीं मरने के बाद
उस को क्या रोएँ जो मरता ही नहीं मरने के बाद
गणेश बिहारी तर्ज़
ग़ज़ल
कुल्फ़त-ए-हिज्र को क्या रोऊँ तिरे सामने मैं
दिल जो ख़ाली हो तो आँखों में ग़ुबार आ जाए
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
क्या रोऊँ ख़ीरा-चश्मी-ए-बख़्त-ए-सियाह को
वाँ शग़्ल-ए-सुर्मा है अभी याँ सैल ढल गया