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ग़ज़ल
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
मैं वो मजनूँ हूँ जो निकलूँ कुंज-ए-ज़िंदाँ छोड़ कर
सेब-ए-जन्नत तक न खाऊँ संग-ए-तिफ़्लाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
ज़वाल हुस्न खिलवाता है मेवे की क़सम मुझ से
लगाया दाग़ ख़त ने आन कर सेब-ए-ज़क़न बिगड़ा
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
सीने पे कहा मैं ने ये दो सेब हैं क्या हैं
शर्मा के ये चुपके से कहा और ही कुछ है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
लब उस के पिस्ता ज़क़न सेब आँखें हैं बादाम
खुले जो दाँत हँसी में नज़र अनार आया
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
किस किस का दिल धड़केगा और कौन मलेगा हाथों को
पक्कीं से जब अंगिया में ये कच्चे सेब उछालेगी
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
ज़क़न है सेब तो उन्नाब है लब-ए-शीरीं
नहीं है सर्व वो ख़ुश-क़द जो मेवा-दार न हो
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
क्या मज़े का है तिरे सेब-ए-ज़नख़दाँ का ख़ाल
लज़्ज़त-ए-मेवा-ए-फ़िरदौस है इस दाने में
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
मेवे पर बाग़-ए-जहाँ में हो जो दिल को रग़बत
शजर-ए-हुस्न से मैं सेब-ए-ज़नख़दाँ माँगूँ
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
हुस्न से दिल तो लगा इश्क़ का बीमार तो हो
फिर ये उन्नाब-ए-लब ओ सेब-ए-ज़क़न है किस का
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
आँखें तिरी नर्गिस हैं रुख़्सार तिरे गुल हैं
चटवाता है होंठों को ये सेब-ए-ज़क़न तेरा