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ग़ज़ल
वो जिन के तहत झुक जाता था सर असनाम के आगे
वही भूले हुए अहकाम-ए-यज़्दाँ याद आते हैं
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
मैं अपने तौर पे खेला था आबगीनों से
मिला हूँ यारों को तहत-उस-सुरा के ज़ीनों से
काज़िम हुसैन काज़िम
ग़ज़ल
हमारी ख़ामुशी भी मस्लहत के तहत है वर्ना
ज़माने को हमें ज़ेर-ओ-ज़बर करना भी आता है