aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "1857 ke inqailab ka aini sha"
इश्क़ की ऐसी शान तो होगीइस से तिरी पहचान तो होगी
तेरी राह में रख कर अपनी शाम की आहटदम-ब-ख़ुद सी बैठी है मेरे बाम की आहट
ये पानी साअ'तों का आईने सा क्यों नहीं हैनदी से आसमानी रंग झलका क्यों नहीं है
ता-हश्र ज़िद में सुब्ह की आती रहेगी शामगुल होंगे जो चराग़ जलाती रहेगी शाम
हिन्दी की अपनी शान है उर्दू की अपनी शानदोनों ही आन-बान हैं हिन्दोस्तान की
बोले दिखला के आईना शब-ए-वस्लदेखिए तो यही वो सूरत है
ये हादिसा भी मुझे पेश आ गया अफ़्सोसकि आइना सा हुआ आइने बनाते हुए
आई बुझने को अपनी शम-ए-हयातशब-ए-ग़म की मगर सहर न हुई
आईना सा अँधेरी रात का मैंख़्वाब हूँ ख़्वाहिश-ए-नशात का मैं
घर से चलते मैं ने अक्सर सोचा हैशायद ही मैं लूट के आऊँ शाम गए
तू अपने आप को आईना सा बना पहलेवगर्ना कैसे भला ख़ुद को बे-हिजाब करूँ
अजब अजब सी हैं अफ़्वाहें गर्म ज़िंदाँ मेंअजब नहीं कि इसी शब यहाँ उजाला हो
समझ में आता नहीं क्या करूँ बग़ैर तिरेकि अपनी शाम भी बर्बाद कर रहा हूँ मैं
सूरत-ए-मेहर आब-ओ-ताब के साथसुब्ह की अपनी शाम करता जा
रंग चढ़ा है ऐसा उस काअपनी आदत याद नहीं अब
उन को अपनी सुब्ह-ए-महशर पर है नाज़हम को अपनी शाम-ए-फ़ुर्क़त पर घमंड
कोई समझे दर्द क्या नख़चीर काफ़ल्सफ़ा 'ग़ालिब' का और ग़म 'मीर' का
जाँ-कनी की तो आश्नाई कीयूँ शब-ए-वस्ल तक रसाई की
बदन को अपनी बिसात तक तो पसारना थाहर एक शय को लहू के रस्ते गुज़ारना था
हर शय है काएनात की अपनी जगह अहमबरतर कोई किसी से न कोई किसी से कम
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