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ग़ज़ल
लबों पर मोहर-ए-ख़ामोशी है आँखें डबडबाई हैं
असर-अंदाज़ अपनी बे-ज़बानी ले के आया हूँ
जलील मानिकपूरी
ग़ज़ल
क्या दबदबा-ए-नादिर क्या शौकत-ए-तैमूरी
हो जाते हैं सब दफ़्तर ग़र्क़-ए-मय-ए-नाब आख़िर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मैं तो हर हालत में ख़ुश हूँ लेकिन उस का क्या इलाज
डबडबा आती हैं वो आँखें 'जिगर' मेरे लिए
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
डबडबाईं मिरी आँखें तो वो क्या कहते हैं
देखो लबरेज़ हैं छलकेंगे ये पैमाना-ए-इश्क़