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ग़ज़ल
बनते बनते ढह जाती है दिल की हर तामीर
ख़्वाहिश के बहरूप में शायद क़िस्मत रहती है
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
सिर्फ़ मिट्टी हो के रहने में तहफ़्फ़ुज़ है यहाँ
जिस ने कोशिश की मकाँ होने की बस ढह कर गया
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
ज़ुल्म की बुनियाद पर उस ने बनाया था महल
सब्र की बस एक ही ठोकर से वो भी ढह गया
मोहम्मद अली साहिल
ग़ज़ल
रिश्ते बोसीदा दीवारों के जैसे ढह जाएँ पल में
लेकिन मैं भी दीवारों के मलबे से सर चुनने वाला
ज़फर इमाम
ग़ज़ल
ढह चुकी थीं जब तमन्नाएँ सभी खंडरात में
शहर-ए-दिल में फिर ये बाम-ओ-दर कहाँ से आ गए