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ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
मौजें ही पतवार बनेंगी तूफ़ाँ पार लगाएगा
दरिया के हैं बस दो साहिल कश्ती के हैं छोर बहुत
उमर अंसारी
ग़ज़ल
मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में
चाहा इधर घटा दिया चाहा उधर बढ़ा दिया