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ग़ज़ल
ज़ाहिद में है न ज़ोहद न रिंदों में मय-कशी
फूलों में हुस्न ग़ुंचों में रंगत नहीं रही
हयात अमरोहवी
ग़ज़ल
तेज़ आँधी को न फ़ुर्सत है न ये शौक़-ए-फ़ुज़ूल
हाल ग़ुंचों का मोहब्बत से सबा पूछती है
असअ'द बदायुनी
ग़ज़ल
हैं दहन ग़ुंचों के वा क्या जाने क्या कहने को हैं
शायद उस को देख कर सल्ले-अला कहने को हैं
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
सच है तुम ने जो लगाया नहीं मुँह ग़ुंचों को
उन्हें फिर किस के तबस्सुम की अदा आई है