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ग़ज़ल
अब ज़बाँ ख़ंजर-ए-क़ातिल की सना करती है
हम वही करते हैं जो ख़ल्क़-ए-ख़ुदा करती है
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
काम अपना तो तमाम किया यास ने 'हवस'
जी इश्तियाक़-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल में रह गया
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
ग़ज़ल
रहा न होगा मिरा शौक़-ए-क़त्ल बे-तहसीं
ज़बान-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल ने दाद दी होगी