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ग़ज़ल
ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही
न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
थी निगह मेरी निहाँ-ख़ाना-ए-दिल की नक़्क़ाब
बे-ख़तर जीते हैं अरबाब-ए-रिया मेरे बा'द
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
ख़तर क्या कश्ती-ए-मय को भला मौज-ए-हवादिस का
न बेड़ा पार हो क्यूँकर कि ख़ुद साक़ी है यार अपना
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
ख़तर है रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गर्दन न हो जावे
ग़ुरूर-ए-दोस्ती आफ़त है तू दुश्मन न हो जावे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अब उस के तर्ज़-ए-तजाहुल को क्या कहे कोई
वो बे-ख़बर तो नहीं फिर भी बे-ख़बर सा लगे
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
क्या ख़बर ज़ाहिद-ए-क़ाने को कि क्या चीज़ है हिर्स
उस ने देखी ही नहीं कीसा-ए-ज़र की सूरत