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ग़ज़ल
न ख़ौफ़-ए-बर्क़ न ख़ौफ़-ए-शरर लगे है मुझे
ख़ुद अपने बाग़ के फूलों से डर लगे है मुझे
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
शरर देहलवी
ग़ज़ल
रग-ओ-पै में दर आता है 'शरर' हर शेर का नश्शा
ग़ज़ल को बारहा तरतीब-ए-जिस्मानी से पहचाना
कलीम हैदर शरर
ग़ज़ल
समझने वाले क्या क्या कुछ समझते हैं 'शरर'-साहब
रग-ए-मअनी फड़कती है तो हम लफ़्ज़ों पे हँसते हैं
कलीम हैदर शरर
ग़ज़ल
सब अपना हर्फ़-ए-मआनी बना रहे हैं 'शरर'
ये लफ़्ज़ लफ़्ज़ तो सदियों से हैं ज़बान-ज़दा