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ग़ज़ल
रखते हैं रस्म-ओ-राह किसी ख़ुद-निगर से हम
लेते हैं काम वुसअ'त-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र से हम
अतीक़ अहमद अतीक़
ग़ज़ल
क्या कहूँ क्या है मोहब्बत का फ़रेब-ए-ख़ुद-निगर
देखती हूँ जिस तरफ़ ख़ुद ही नज़र आती हूँ मैं
नजमा तसद्दुक़
ग़ज़ल
यही आलम रहा गर शौक़ की आईना-बंदी का!
तो गुम हो जाएगा जल्वों में शौक़-ए-ख़ुद-निगर मेरा
परवेज़ शाहिदी
ग़ज़ल
इदराक के ये दुख ये अज़ाब आगही के दोस्त!
किस से कहें ख़ता निगह-ए-ख़ुद-ए-निगर की है
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
इस दौर-ए-ख़ुद-निगर में भी 'शिबली' को ज़िद है ये
ज़ंजीर-ए-मा'नी पाँव में लफ़्ज़ों के डालिए
अलक़मा शिबली
ग़ज़ल
निसार इस लन-तरानी के ये क्या कम है शरफ़ उस का
दिल-ए-ख़ुद्दार ने कर ली निगाह-ए-ख़ुद-निगर पैदा